Wednesday 22 February 2012

‘‘कही यह मुसहर होने का दण्ड तो नही’’


मेरा नाम हरिनाथ मुसहर (उम्र-50 वर्ष),  पुत्र-स्व0 श्‍यामा मुसहर हैं। मैं ग्राम-बरजी, पोस्ट-नयेपुर, थाना-फुलपुर, ब्लाक-बड़ागाँव, तहसील-पिण्डरा, जिला-वाराणसी का निवासी हूँ। मेरी पत्नी का नाम गुलाबी मुसहर है। मेरे दो लड़के थे, मुलायम (उम्र-20 वर्ष) और सुभाष (उम्र-10 वर्ष), आज से दस वर्श पहले बीमारी के कारण गुजर गया है। मेरी एक लड़की मीना मुसहर (उम्र-25 वर्ष) विवाहित और बाल बच्चे वाली हैं। 

मैं खेतो में मजदूरी तथा दोना-पत्तल बनाकर उनको बेचकर अपना जीवन तथा अपने बाल बच्चों के साथ गुजार रहा था। तभी एक दिन अचानक (फरवरी, 1988) बसंत पंचमी के दूसरे दिन परिवार के साथ मड़ई में सो रहा था, उस समय भोर के चार बज रहा था। दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर मेरी घरवाली ने दरवाजा खोला तो देखा ‘‘पुलिस’’ वह घबरा गयी। पुलिस को देखकर वह डर गयी और  मेरे पास आयी ही थी कि अचानक तभी धड़ाधड़ दो पुलिस वाले घर में घूस आये और मेरा चेचुरा (बाह) पकड़कर थाने ले जाने लगे। मैने कहा-‘‘क्यो ले जा रहे है।’’ पुलिस वाले मारते हुए बोले-‘‘चुप साले, चलता है कि बताऊ।’’ मेरी पत्नी भी गिड़गिड़ा रही थी, लेकिन वह उनकी एक नही सुने। जब वह मुझे बाहर लेकर आये तो मैने देखा कि गाँव के अन्य लोग रामदेव यादव, राजबलि, विक्रमा पहलवान, कन्हैया, डा0 भैयालाल सब पुलिस से पहचान करवा रहे थे, पुलिस वाले कह रहे थे लालमन को पकड़ो। यह देख मेरा भाई लालमन भाग गया। हमें व लालचन्द दोनों भाईयों को फूलपुर थाने ले गये। 

बात यह थी कि उसी रात रामदेव 11:00 बजे मेरे भाई लालमन से रिक्शा लेकर साथ चलने को कहाँ। मेरा भाई किसी की विदाई कराकर आया था, उसने कहाँ-‘‘मैं थक गया हूँ, नही जाऊँगा।’’ तब वह उससे मुँह ठोठी कर कहा-‘‘ मै तुझे देख लूँगा’’ और चला गया। उसी रात रामदेव के पट्टीदार में कही चोरी हुई थी, उसी के इल्जाम में हम लोगों को पुलिस ले गयी। मेरी औरत मदद के लिए शिवबाबु यादव (ग्रामप्रधान) के यहाँ गयी। वह बोले-‘‘हम क्या कर सकते हैं, चोरी हुआ है इसीलिए पुलिस ले गयी है।’’ 

मैं फुलपुर थाने पहुँचा मेरे शरीर पर एक गन्जी थी, पुलिस मुझे डंडे से मारती कहती ‘‘चोरी किये हो’’, मैंने कहा-‘‘नही साहब, लेकिन वह डंडे के आगे बात ही नही कर रहे थे ऐसा लग रहा था इंसान नही जानवर को पीट रहे हो। आठ दिन तक लगातार सुबह-शाम लाठी से पुलिस मुझे जानवरों की तरह मारती और कहती कहो ‘‘मैने चोरी किया हैं।’’ मैं चिल्लाता रहता कि मैं बेकसुर हूँ, लेकिन वह मारते ही रहते, जब मैं बूरी तरह पस्त हो जाता, जिंदा लाश की तरह छोड़कर चले जाते। कभी-कभी तो छत में मुझे लटकाकर मुझे मारते, मेरे शरीर से खून निकलता फिर भी वह मारते रहते, उस समय मुझे लग रहा था कि अब शायद मैं जिन्दा घर नही पहुँच पाऊगा। एक बार तो इतना मारे कि मैं चित्त जमीन पर पड़ा रह गया, मुझे लगा अब शायद मैं जिन्दा न उठ सकूँगा। चार पुलिस वाले मेरे शरीर पर चल रहे थे और लाठी से मेरे शरीर पर जगह-जगह खोदते जैसे लगता किसी इंसान के ऊपर नही बल्कि जमीन पर चल रहे है, वैसा व्यवहार तो आदमी जानवर भी नही करता। यह बताते हुये उनके आँख से आसू निकलने लगे। 

मेरी पैरवी करने वाला कोई नही था। जब कोई बड़ा साहब थाने पर आते तो वह मूझे छिपा देते, बोलते एक को पकड़ा है। उनकी मार से मेरी अँगुली टूट गयी, मेरा हाथ-पैर सूज गया, मुझसे चला नही जाता था। ऐसा लगता था कि सारी जिन्दगी अपाहिज ही रहूँगा। खाने को एक वक्त देते थे, खाया नही जाता, मैं दर्द से कहरता रहता, लेकिन वह मुझे कुछ भी दवा नही देते, सारा घाव में तेज-तेज दर्द होता, जिससे सारी रात तड़प-तड़प कर बीतता। जहाँ मैं सोता इतनी गंध आती थी कि रात में नीद नही लगती, मन में बुरे-बुरे ख्याल आते, मेरा मन घबराता था, यह सब आज भी याद करता हूँ तो शरीर काप जाता है। उस समय ऐसा लग रहा था कि अब मैं जिन्दा यहा से बचकर नही जा सकूँगा। 

परिवार की चिंता दिन-रात सताती, बच्चे छोटे थे, मेरी पत्नी कैसे मुझसे मिलने आयेगी, यही दिन रात सोचता रहता, फिर सोचता अगर मुझे इस हालत में वह देखेगी तो बहुत दुःखी हो जायेगी। आठवे दिन चालान कर मुझे जेल भेज दिया गया। ढ़ाई महीना मैं जेल में रहा, वहा मेरा ईलाज हुआ। मैं जब वहा था तो परिवार को देखने के लिए मेरी आँख तरसती रहती, दिल में यही होता किसी प्रकार अपने बीवी-बच्चों को देख सकूँ। बार-बार मैं यही सोचता कि किस जन्म का पाप भूगत रहा हूँ, कही यह मुसहर होने का दण्ड तो नही है।

जेल में ढ़ाई महीना किसी तरह रात-दिन जागकर गूजारा। वहाॅ से छुटने पर केस चलने लगा। सिंधौरा के महेन्द्र सिंह वकील मेरा केस देखने लगे। मेहनत मजदूरी कर पेट काट-काटकर हर तारीख पर न्याय की आस में जाता। दिन तो काम करते गुजरता था, लेकिन रातभर यही चिंता सताती कि कही मुझे सजा न हो जाय, तो मेरे बाल बच्चे किसके भरोसे रहेंगे। आज भी उन्हें याद करता हूँ तो पसीना निकलने लगता। रात दिन मेहनत मजदूरी कर मैं अपनी लड़की की शादी इसी कारण जल्दी कर दी। शादी के पहले सुभाष के पेट में पानी भरने के कारण मृत्यु हो गया। मैं उसका ईलाज कराने मैं बसनी अस्पताल गया तो डाक्टर ने कुछ गोलियाँ देकर कहा-जाओ पेशाब के रास्ते निकल जायेगा। 

मेरी गरीबी बदकिस्मती बन मेरे आस पास मडंरा रही थी, पैसा न होने से मै प्राइबेट अस्पताल मे उसका ईलाज नही करा पाया। सरकारी गोलियों कि तरह मेरा बैटा भी इस दुनिया से जिन्दगी भर के लिये चला गया। आज वह होता तो मुझे सहारा देता, मुझे विश्वास नही हो पाया है कि वह मर गया है, लगता है कि वह कही गया है, थोड़ी देर में आ जायेगा, लेकिन ऐसा नही है, बेटे को खोने का गम और लड़की की शादी की फिक्र जैसे मुझे खाये जा रही थी। बार-बार दिल यही कहता अगर मुझे सजा हो गया तो मेरी बेटी की क्या होगा, बिरादरी में नाक कट जायेगी, गरीब की इज़्ज़त ही सब कुछ होती है। किसी तरह कुछ पैसा इकट्ठा कर बेटी का कन्यादान कर दिया। शादी के बाद कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाता रहा, ऐसा करते-करते समय बितता गया।

16 अप्रैल, 2002 को मुझे सजा हो गयी, जो मेरी जिन्दगी के कुछ हिस्सा को अपने परिवार से दूर कर दिया। उस दिन सुबह में मैं कचहरी गया, तब मैने ऐसा सोचा नही था। मैं और मेरा भाई लालमन दोनो गये, जज साहब के बैठने के बाद हमारा नाम पुकारा गया, मेरे वकील हमें कठधरे में खड़ा कर जज से धीरे से कुछ कहे और चले गये, 2 बजे लंच हो गया, जज उठ गये। मैं घबराकर वकील के पास गया तो उन्होनें कहां-‘‘चलो मैं आ रहा हूँ’’, मैं इसी विश्वास से चला आया कि वकील साहब आयेगें।

जज साहब फिर आ गये, मैं दरबाजे कि तरफ बार-बार देखता रहा कि वकील साहब आ रहे है कि नही। मेरा मन घबरा रहा था। तभी पेशकार की आवाज सून मैं उधर कि तरफ देखने लगा। वह बोले-‘‘धारा 382, 459 आई.पी.सी. के तहत 10 वर्ष का कारावास और 17,000/- का अर्थदण्ड लगाया गया है। 

यह सुनते ही मेरा होश उड़ गया, मेरा चेहरा लाल हो गया, मेरे शरीर से पसीना निकलने लगा। सिपाही मुझे चैकाघाट जेल में लेकर गये। उस दिन पूरी रात सो नही पाया, घरवाले क्या सोच रहे होगें। ऊधर घर वाले सोच रहे थे कि मैं अपनी बहन के यहाँ गया हूँ। उन लोगो को दूसरे दिन अखवार के जरिये गांव के लोगो ने बताया। मेरे घर मातम पड़ गया, दुखी का पहाड़ टूट पड़ा। जब वे लोग वकील के पास गये तो उसने झूठ कहा कि हम लोगों ने कोर्ट में माफी माँग ली, इससे सजा हो गयी। यह जानकर मुझे बहुत दुःख हुआ था और मैं  फूट-फूटकर रो रहा था। 

कुछ दिन चैकाघाट में रहने के बाद सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया। वहाँ दूसरे बैरक एक नम्बर में रखा गया। पाकिस्तान के कैदियों के बैरक की सफाई मुझसे कराते, पानी भरवाते। सुबह दस बजे तक तथा दोपहर के बाद दो से शाम पाँच बजे तक ढ़ाई साल तक यही काम किया। मैं जहाँ रहता वहा खूद झाड़ू लगाता, लेकिन शौचालय इतना गन्दा रहता कि उसकी गन्ध बाहर तक आती इसी कारण खाना खाने का भी मन नहीं करता बस काम करने और जिन्दगी जीने के लिये खाता था। जब खाने बैठते तो दिमाग घर पर पहॅंूच जाता, पता नही वो लोग खाये कि नही, यही सोच हाथ रूक जाता और आंख भर आती थी।

ढ़ाई वर्ष के बाद सेन्ट्रल जेल के शिवपुर फार्म में 6 एकड़ जमीन की देखभाल करने के लिये 6 कैदियों को लगाया गया, प्रत्येक कैदी एक एकड़ की गोड़ाई निराई करता। जब फसल लगानी हो तो सौ कैदी जेल से निकलते थे, सीजन की सभी सब्जी और अनाज की पैदारवार हम लोग करते। दिनभर कड़ी मेहनत के बाद रोज दस रुपये के हिसाब से मजदूरी मिलती थी। इतवार (रविवार) को काम करते थें, उसका पैसा नही मिलता, एक-दो बार मैनें पूछा इसकी मजदूरी क्यों नही मिलती तो कहते छुट्टी का दिन है। मैं यही सोचता छुट्टी ऐसे ही जेल में होती है लेकिन मैं डर से कुछ नही बोलता। पूरे महीना काम करता, रजिस्टर पर 15 दिन दर्ज होता, कहते 15 प्रतिशत पार्टी को जाता है। उस समय यही सोचता खून-पसीना मेरा गीरा, किसी बिना अपराध के झूठी सजा मै काट रहा हूं और पैसा किसी दूसरे को मिल रहा है। मन से हँसते-रोते यही सोचता ‘‘वाह रे किस्मत।’’

दिन भर कड़ी मेहनत के बाद रोटी, पानी की तरह दाल और बिना तेल की साग की सब्जी खाने को मिलता। अप्रर्याप्त भोजन के अभाव और अधिक मेहनत के कारण मुझे टी0वी0 हो गया। 6 महीने तक लगातार दवा चलता रहा, उस समय दूध-अंडा खाने को मिलता था, लेकिन तबियत न ठीक होने के कारण खाना नही खाया जाता। बिमारी और घर की फिक्र दोनो शरीर को पूरी तरह से तोड़ दे रही थी। जब भी कभी बारिस होती, सोचता घर वाले कहा रहते होगें, मड़ई चूने लगी होगी। दिन तो काम करने में गुजारता, लेकिन रात नही कटती, करवट बदलते रहता, अच्छे-बुरे ख्याल मन में आते रहते थे।

ठीक होने के बाद फिर काम पर लग गया। दिन-रात कड़ी धूप में मेहनत करने लगा। साल-महीना इसी तरह बीतता गया। एक-एक दिन पहाड़ की तरह गूजरता था। घर वालों की बहुत याद आती थी। घर वाले जब भी मिलने आते तो कुछा समय के लिए अच्छा लगता। कुछ दिन गुजरने पर फिर चिंता लगी रहती थी, वे लोग क्यों नही आये। एक बार मुलाकात पर आये तो अपने मेहनत की 5,000/- रुपया उन्हें दी। इसी तरह एक बार एक हजार और दुसरी बार दो हजार पाँच रुपया दिया तथा साबुन तेल के लिए पाँच सौ रुपया लिया और सात वर्ष तक वहाँ खेती किये थे।

डसी दौरान 2009 में एक दिन साहब के पास गया पूँछा-‘‘साहब मैं कब अपने घर जाऊँगा,’’ तो उन्होंने देखा और कहा-‘‘तुम्हारी सजा दो महीने पहले पूरी हो गयी है, लेकिन जुर्माना न देने और बीमारी के कारण 2 फरवरी, 2011 में तुम छुटोगे।’’  उस दिन के बाद से जैसे एक-एक दिन रोज मैं गिनता रहा, सोचता रहा अगर मेरे पास जुर्माना का पैसा होता, मैं बीमार नही पड़ता तब मैं अपने घर पर होता। जैसे-तैसे दूःख सूख में यह दिन भी गुजर गया।

2 फरवरी का दिन मेरे लिए सबसे बड़ा खुशी और त्योहार का दिन बन कर आया। घर वालों को पहले ही खबर मैंने दे दी। पूरे दिन छूटने की खुशी में कुछ भी नही खाया। बड़े साहब आये और परेड में चले गये। उन्हीं के आने इंतजार में मैं अपनी आँख लगाये बैठा। मन में यही होता, घर जाऊँगा, अपने गाँव जाऊँगा, खुली हवा में साँस लूँगा, घर और गाँव जिसे मैं जैसा छोड़कर आया था उसी हाल में होगा।

तभी अधीक्षक साहब आते दिखायी दिये मैं तुरन्त कार्यालय गया, तब अधीक्षक साहब ने मुझे रुपया 6.081 का चेक दिये तथा ऊपर से 500/- रुपया और दिये। वहाँ से छूटते ही तेजी से कदम बाहर की तरफ बढ़ाते हुए घर गया। बाहर का दृश्य देख मेरे आँख से आँसू निकलने लगा, लगा जैसे खुशी अधिक हो जाती है, तो इंसान रो पड़ता है।

घर आने पर पूरी रात बच्चों और पत्नी के साथ जागकर बिताया। मेरे जेल जाने के बाद दो साल तक मेरी पत्नी अपनी बहन के घर बनारस में गूरिया गूहती। रात में शादी-ब्याह में सिर पर ट्यूब-लाइट ढ़ोती थी। दोना-पत्तल बनाकर घर का खर्च चलाती, मेरा लड़का पैतीस रुपये में मजदूरी करता था। यह सब सून आत्मा रोती थी। 

उन लोगों के झूठा फँसाने के कारण मैने अपनी जिन्दगी के नौ वर्ष अपने घर वालों से दूर गुजारा है। मेरे न रहने पर मेरे परिवार ने बहुत दुःख सहा है। जेल में वह हँसते हुए मिलने आती थी कि अगर उन्हें मेरे दुःख का पता चलेगा तो वह दुःखी होंगे। मैं भी ऐसा बर्ताव उनके साथ करता था। मेरा एक लड़का मुलायम जिसे मैंने गाँव से दूर बम्बई काम करने के लिए डर से भेज दिया है कि कही मेरी तरह वह भी पुलिस का शिकार न हो जाय।

मैं चाहता हूँ कि मैंने जो वक्त गवा दिया है, किसी और के साथ न हो। इसलिए जिन्होंने मुझपर झूठा आरोप लगाकर मुझे फँसाया है उन्हें सख्त से सख्त सजा मिले। यह सब सारी बात बताकर ऐसा महसूस हो रहा है जैसे क्रमबद्ध सब कुछ आँख के सामने हो रहा हैं ?

जेल से आने के बाद कही आने-जाने का मन नही करता। इतनी सजा काटने के बाद मैं खुद अपने को दोषी मानने लगा हूँ। यही सोचता हूँ लोग मेरे बारे में क्या सोचते होगे। मन हमेशा अशान्त रहता है। इतनी कड़ी मेहनत और पुलिस की मार से शरीर में हमेशा दर्द रहता है। 


संघर्षरत पीडि़त : हरिनाथ मुसहर                                

                                 
साक्षात्कारकर्ता : फरहत शबा खानम्, मीना कु0 पटेल