मेरा नाम तारा मुसहर है। मेरी उम्र 22 वर्ष है। मेरे पति मुरारी मुसहर जो गाँव के ठाकुर नन्हें सिंह के यहां ट्रैक्टर चलाने का काम करते हैं। मेरे दो बच्चे हैं, एक लड़का विनोद जो पाँच वर्ष का है। एक लड़की सीता जो तीन वर्ष की है। बच्चे अभी पढ़ने नहीं जाते हैं। मैं अपने घर में सास-केवला के साथ रहती हूँ। मैं घर गृहस्थी का काम करती हूँ। मैं ग्राम- खरगपुर, पो0- झन्झौर, थाना- फुलपुर, ब्लाक- पिण्डरा, तहसील- पिण्डरा जिला-वाराणसी की रहने वाली हूँ।
वह दिन शनिवार, दिनांक 18.12.2010 था। मेरे पति काम से वापस आये, रात का समय था। हम लोग जो कुछ रूखा-सूखा बना था खाकर मड़ई में सो रहे थे। जाड़ा का समय था चारो तरफ अंधेरा सुनसान था। हम लोग लुगदी ओढ़ कर सोये थे। आधी रात बीत चुकी थी शायद उस समय डेढ़ बज रहा था। अचानक दो पुलिस वाले आये, उनके हाथ में लाइट था। वह अपना वर्दी पहने थे। हमारे मुंह से लुगदी उठाये और मेरे पति जो मेरे पास में सोये थे उन्हें लात से मारते हुए कहे, ‘‘शाले, चलो थाने।’’ मैं घबराकर उठी और बोली-‘‘साहब इनका कसुर क्या है।’’ तब मुझे गन्दी-गन्दी गालियाँ देने लगे और बोले-‘‘साला चोरी करता है।’’ मैं फिर हिम्मत जुटाते हुए कही- साहब यह ट्रैक्टर चलाते हैं और यह कहते हुए मैं डर से कांप रही थी। मेरे बच्चे भी उठ गये थे और खूब रोने लगे। मैं बच्चों को संभालती या उनसे अपने पति को बचाती। उनके देह पर खाली चढ्डी था, उसी तरह घर से कुछ दूर तक पुलिस वाले ले गये। फिर पता नहीं क्या सोचा बोले-साले कपड़ा पहन लो। फिर उन्हें सड़क पर जहाँ पुलिस की जीप खड़ी थी ले गये। मैं और मेरे बच्चे रोते बिलखते रहे, लेकिन उन्होंने नहीं सुना। इसके बाद बस्ती में हंगामा हो गया सभी उठ गये, क्योंकि बस्ती के संतोष को भी पुलिस उसी समय गिरफ्तार करके ले गयी थी। सब लोग इधर-उधर पागलों की तरह भागने लगे कि कहीं से कोई रास्ता मिले जिससे वो लोग छूट जाए। फिर हम लोग मानवाधिकार कार्यकर्ता को फोन किये। मेरे पति जहाँ काम करते थे वहाँ गयी। उन लोगों ने हमको सांत्वना दिया कि तुम्हारी मदद करेंगे।
दुसरे दिन रविवार होने से मेरे पति की जमानत नहीं हुई। दिन भर आँख से आँसू गिरता रहा। घर में चुल्हा नहीं जला। बच्चों को आस-पड़ोस वाले देते वहीं खा रहे थे। मेरे घर में पति के अलावा कोई और आदमी नहीं है। घर बस्ती से कुछ दूरी पर है। अकेले होने के कारण मैं और मेरी सास दोनों एक जगह डर से दुबके रहते। जाड़े के कारण गाँव में जल्दी सन्नाटा हो गया था। किसी तरह वह दिन भी बीत गया। अभी भी सोचती हूँ तो घबराहट होती है, अगर इन्हें कुछ हो जाता तो मेरा और मेरे बच्चों का क्या होता। मैं थाने अपने पति से मिलने जाना चाहती थी, लेकिन जहाँ मेरे पति काम करते हैं उन्होंने वहाँ जाने से मना किया बोले जाकर भीड़ लगाओगी। मेरी आँख उन्हें देखने के लिए तरस रही थी। मन हमेशा यही सोचता कि वे किस हाल में होंगे। तीसरे दिन भी निराश मन से बैठी रही, सोचती रही पता नहीं आज क्या होगा। लोगों से यही सुनती कि आज छूट जायेंगे। बार-बार दौड़कर मालिक के यहाँ जाती बिना खाये-पीये। आँखों के आगे अंधेरा छा रहा था, जैसे लगता गिर जाऊँगी। उसी शाम मेरे पति पिण्डरा से छुटकर आये, उन्हें देखकर मेरे आंसू निकल रहे थे उस समय मैं सोचती की पोछ-लू, मुझे रोता देख वह भी रोने लगे। उस दिन मैंने घर में चुल्हा जलायी, लेकिन खाने का मन नहीं कर रहा था और फिक्र था कि पुलिस कहीं फिर न आ जाये। यही डर मन में हमेशा रहता है।
मेरे पति को काम से आने में थोड़ी देर हो जाती है, तो मैं दुआर (जहाँ मेरे पति काम करते हैं) पर चली जाती हूँ कि वह घर क्यों नहीं आये। मन में होता है कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे। यही सब सोचकर मुझे पुलिस पर गुस्सा भी आता है कि अगर उन्हें झुठा फँसाकर पुलिस उन्हें थाने नहीं ले गयी होती तो आज हम लोग सम्मान से रहते। घटना को याद करती हूँ तो दुखी हो जाती हूँ। मन में यही होता है कि अगर पुलिस इन्हें दुबारा ले जायेगी तो मेरा और मेरे बच्चों का क्या होगा। मैं चाहती हूँ कि पुलिस के खिलाफ कार्यवाही हो। इन्हें झुठा फँसाया गया है, उससे इन्हें छुटकारा मिले और हम लोगों को चैन सुकून से रहने दिया जाय, हमें न्याय मिले।
संघर्षरत पीडि़त : तारा मुसहर
साक्षात्कारकर्ता : फरहत शबा खानम्, शिव प्रताप चौबे
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