Wednesday, 28 March 2012

‘पुलिस की गोली अपाहिज व जीवन को बोझ बना दिया’


मेरा नाम वसीम अकरम, उम्र-24 वर्ष, पुत्र-श्री रियाज अहमद हैं। मैं 15/377 A1, रजा नगर (मुर्गिया टोला), बजरडीहा, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) का निवासी हूँ। हम पाँच भाई और चार बहन है।
 
11 मार्च, 2009 के दिन पुलिस फायरिंग में दो लोगों की मृत्यु हो गयी और आठ लोगों को पुलिस की गोली अपाहिज व जीवन को बोझ बना दिया। यह दिन हमारे जीवन का सबसे अपशकुन दिन साबित हुआ, क्योंकि उन आठ लोगों में एक हम भी थे। होली का यह दिन वाराणसी के इतिहास में काला दिवस साबित हुई और दोनों की मृत्यु वास्तव में दुखदायी था, दोनो अच्छे लोग थे, पुलिस की गोली से उनकी मृत्यु सही में बहुत ही गलत चीज थी, ‘‘दोनो ही परिवार में बड़ा तथा कमाने वाला लड़का था’’। पर्व-त्योहार हमारे लिए महत्वहीन-सी हो गई है। आज भी हम दिमाग और शरीर को संगति करने के लिए संघर्ष कर रहे है। मैं अपना वजन खो दिया, बहुत कमजोर हो गया हूँ। कुछ भी खाने की इच्छा नही होती, मेरा पूरा जिन्दगी बर्बाद हो गया, मैं अपने कार्य से विमुख हो गया हूँ। पहले बिनकारी का कार्य करके परिवार को आर्थिक सहयोग प्रदान करता था, अब बैठे-बैठे खाना अच्छा नहीं लगता। बहुत ही घबराहट महसूस होती है, कभी-कभी दवा की प्रभाव के कारण तो पागलपन का दौरा सा आता है, जिससे परिवार के लोग भी परेशान हो जाते हैं। उतना पैसा नहीं है कि दवा के साथ पौष्टिक भोजन करा सकें।

इन सभी बातों को सोचकर दिमाग फॅटने लगता है। घटना है कि दिमाग से हटती भी नही। आज भी जोर की आवाज की पटाखा छुटने पर मैं घबरा जाता हूँ, यह आवाज हमें होली के दिन की घटना को याद दिलाती है, पूरा तस्वीर आँख के सामने तैरने लगती है। 

इस दिन मैं दीदी (रानी) के यहाँ धोबियाना (बजरडीहा) से लगभग 11:00 बजे दिन में घर वापसी के लिए निकला था, गली में पटाखे की आवाज जैसी आवाज आ रही थी। हमें नही पता था कि पुलिस द्वारा अंधाधुन गोली चलायी जा रही है। हम घर की ओर बढ़ रहे थे और जैसे ही गली से रोड पर आये, वैसे ही एक गोली दाया हाथ की हथेली के ऊपर लगी, हम अपना हाथ देखे और सामने आगे बढ़ते पुलिस वालों को, यह देखकर हम बिना कोई क्षण गवाए उसी गली में भागने वाला ही था कि दुसरी गोली दायीं पैर के जांघ में आ धँसी, हम वहीं गिर पड़े, लगा कि अब हम नही बचेगें। कुछ क्षण के लिए मौत को सामने देखकर भूल गये कि हमें गोली भी लगी है। थोड़ी देर बाद दर्द महसूस हुआ, जो बहुत ज्यादा हो रहा था। अभी याद आने पर रोगटें खड़े हो गये। कुछ देर होश में रहे, लेकिन थोड़ी देर बाद चक्कर महसूस होने लगा और हम बेहोश हो गये थे। 

बेहोश होने के पहले मेरा पूरा शरीर थर-थरा रहा था, पुलिस वाले गोली चला रहे थे तथा 15-20 आदमियों को भागते देखा। हाथ से ज्यादा असहनीय दर्द जांघ में हो रहा था। उसी भागते हुए लोगों में से कुछ लोग हमें गोली लगा देख अपने साथ उठाकर मोहल्ला के ही डाक्टर बदरूद्दीन के यहाँ ले आये, हमारे परिवार के सदस्यों को जब गोली लगने के बारे में पता चला तब वे लोग डाक्टर साहब के क्लिनिक में आये, सभी का रोते-रोते बुरा हाल था। उस समय हो रही बातों का अनुभव कुछ-कुछ हो रहा था, लोग हमें अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी का इत्जाम कर रहे थे, घंटा बीत गया, लेकिन कोई गाड़ी नही मिला, तब अतार जमाल लहरी (स्थानीय नेता), छैवा निवासी, पुलिस वाले से बातचीत कर उनके गाड़ी में लाद दिये। साथ में हमारे मित्र व परिवार के बड़े भाई तथा चाचा-शमीम साथ में कबीर चैरा अस्पताल आये। 

यहाँ डाक्टरों ने ईलाज करने से इन्कार कर दिया, दर्द से हम तड़प रहे थे, फिर उसी वक्त शायद पुलिस वाले की गाड़ी या नेता जी के गाड़ी से हमें कैंट स्थित लक्ष्मी अस्पताल ले आये और अन्दर एक बिस्तरा पर लेटा दिये। वहीं पर बजरडीहा के ही एक लड़का अब्दुल रहमान पुलिस गोली का शिकार, पड़ा हुआ था। डाक्टर उसी को देखने में व्यस्त थे। उसे देखने के बाद डाक्टर हमें देखने लगे, पहले दर्द की सुई दिया गया, जिससे थोड़ी राहत महसूस हुआ, एक्स-रे किया गया, उसके बाद हमें कुछ ध्यान नहीं रहा। 

लगभग एक-डेढ़ घंटे बाद हमारी आंख खुली, आपरेशन करने की बातचीत चल रही थी, डाक्टर कह रहे थे, अगर आपरेशन करते वक्त अगर कुछ अनहोनी होती है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा और पापा से बोले, ‘‘जब आप पेपर पर हस्ताक्षर करेंगे, तब आपरेशन हो सकेगा।’’ पापा हाँ कहते हुए हस्ताक्षर कर दिये। बातचीत होने के बाद हमें पानी चढ़ाने का काम शुरू हुआ। अस्पताल में कुछ दिन बिताने के बाद हम घर आये और बेरोजगार पड़े हुए है, यनि सोच-सोचकर मन कुढ़ता रहता है। 

अपनी कहानी आपको बताते हुए अन्दर से डर लगा और अफसोस भी होता है, क्योकि मेरा जिन्दगी बर्बाद हो गया, अभी तक मुआवजा भी नही मिला है। इसके बाद कोई हमारी मदद को नही आया न जनप्रतिनिधि और न सरकार। दवा खाकर जिंदा हूँ। गोली पैर में ही नसों के बीच धँसी हुई है, अगर गोली निकाला जायेगा तब पैर काटना पड़ सकता है, इसलिए आपरेशन नही करवा रहे है। हथेली और जांघ दोनों जगह की हड्डी टूट चुकी है। जांघ में राड लगाया गया है।  

डर से घर के बाहर घूमने नहीं जाते है, क्योंकि कहीं ठोकर या किसी से टक्कर लगने से दर्द शुरू हो जाती है, ज्यादा चलने पर भी दर्द उठने लगता है। शादी-ब्याह, उत्सव, समारोह में अब नहीं शामिल होते है, आस-पास या घर में ही मन को बहला-फूसलाकर जी रहे है। काम करने के बाद अधिकांश दिन एक जगह मिलकर दोस्तों के साथ बातचीत हँसी-मजाक होता था, अब वहा नहीं जाते हैं, बुरा लगता है कि हम अब कैसे चाय-पान करा पायेंगे। शुरूआत में लोग देखने आते थे, अब धीर-धीरे बहुत कम हो गया। सोचने और किसी से इन सभी जुड़ी बातों को सुनने व बात करने पर घबराहट महसूस होने लगती है और सभी बातें-चीजें आंखों के सामने तैरने लगती है। 

दूसरी ओर ईलाज में भी अत्यधिक पैसा खर्च हुआ और हो रहा है, हम एक पैसा भी नहीं कमा रहे है, कोई रास्ता भी नही सूझ रहा है कि पैसा कहाँ से व कैसे कमायें। परिवार वाले पेट काटकर ईलाज करवा रहे है। पहले हम बिनाई करके चार हजार रूपया तक महीना कमा लेते थे, अब हमारी जिन्दगी बोझ हो गई है। 11 दिसम्‍बर, 2009 को ईलाज के लिए हमें पाँच सौ रुपया मिला, हम दवा लेने जा रहे थे, रुपया रास्ते में ही कही गिर गई, उस दिन हमें अत्यधिक दुःख हुआ था, एक तो कमाई नही है, दूसरे यह सोचकर बुरा लग रहा है कि परिवार वाले क्या सोच रहें होंगे। आज भी वह मन पर बोझ बना हुआ है, दुसरी ओर जिंदगी कैसे चलेगी सोचकर परेशान है।

उस घटना के कारण मेरे भाई का शादी रूक गया और मेरा शादी भी टूट गया। मेरा भी शादी की बात चल रही थी, वैसे भी हम दोनो बच्चे से ही एक साथ खेले-कूदे थे, परिवार वालों का भी आना-जाना रहता था, लेकिन अब उसका परिवार बोल रहा है ‘‘जो अपने कमाकर नही खा सकता, उसे हम लड़की नही दे सकते’’ सुनकर बहुत दुःख हुआ था और चिन्तित है, क्योंकि उसकी शादी होने वाली है, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर सकते, जबकि लड़की की भी इच्छा हमसे शादी करने की है। 

हम चाहते है कि दुबारा कोई पुलिस वाला किसी गरीब के साथ ऐसा अत्याचार न करे। कोई घर में कमाने वाला है, उसे ही मार दो, तो कैसा लगेगा। हमारे घर में बड़े भाई है, काम चल रहा है, दुसरे पर क्या बीतती है, यह समाज, सरकार व पुलिस वाले सोचे। सबको मुआवजा मिले, न्याय मिले और दोषी पर कठोर कार्यवाही हो। आपके साथ ध्यान-योग करने के बाद शांति और थोड़ा राहत महसूस हो रही है तथा आपसे बातचीत करने के बाद मन हल्का हो गया तथा अभी अपनी कहानी सुनकर अब पहले जैसी घबराहट महसूस नही हुई। हमारा भी सम्मान, हमारे परिवार के साथ लोगों के बीच समारोह में हो।

संघर्षरत पीडि़त - वसीम अकरम
साक्षात्कारकर्ता - उपेन्द्र कुमार

No comments:

Post a Comment